Key to Success
द्धारा राजपाल
अपने जीवन उदेश्य को जानना और उसे प्राप्त करने के लिए ढृढ आत्मविशवास रखना, यही सफलता की ओर पहला कदम है । यह अदम्य विचार कि मै अवश्य सफल होऊंगा और उस पर पूरा विश्वास ही सफलता पाने का मूल मंत्र है । याद रखिए ! विचार संसार की सबसे महान शक्ति है यही कारण है कि सफलता (Success) पाने वाले लोग पूर्ण आत्मविशवास रखते हुए अपने कर्मो को पूरी कुशलता से करते हैं, दुसरो की सफलता (Success) के लिए भी वे सदा प्रयत्नशील रहते हैं । प्रत्येक विचार, प्रत्येक कर्म का फल अवश्य मिलता है अच्छे का अच्छा और बुरे का बुरा । यही प्रकृती का नियम है । इसमे देर हो सकती है पर अंधेर नही । इस लिए आप सफल होना चाहते हैं तो अच्छे विचार रखिए, सद्कर्म करिए और जरुरतमंदो की नि:स्वार्थ भाव से सहायता तथा सेवा करिए । मार्ग मे आने वाली कठिनाइयों, बाधाओं और दुसरो की कटुआलोचनाओं से अपने मन को अशांन न होने दीजिए। जब अपनी समस्या न सुलझे जव कोइ अपनी समस्या को हल न कर सके तो उस के लिए सब से अच्छा तरीका एक ऎसे व्यक्ति की खोज करना है जिसके पास उससे भी अधिक समस्याऎं हो, और तब वह उन्हे हल करने मे उस की सहायता करे। आप की समस्या का हल आप को मिल जाएगा । चौकिए मत, इसे आजमाइए। बीज और फल अलग अलग नही विश्व प्रसिद्ध विचारक इमर्सन ने ठीक ही कहा है कि - "प्रत्येक कर्म अपने मे एक पुरुस्कार है। यदि कर्म भली प्रकार से किया गया होगा और शुभ होगा, तो निश्चय ही उस का फल भी शुभ होगा। इसी प्रकार गलत तरीके से किया गया अशुभ कर्म हानिकारक होगा"। आप इसे पुरातन पंथ नैतिकता कह सकते हैं, जो कि वास्तव मे यह है । लेकिन, साथ साथ ही, यह आधुनिक नैतिकता भी है। यह उस समय भी प्रभावशाली था, जब मनुष्य ने पहिए का अविष्कार किया था और भविष्य मे भी प्रभावशाली रहेगी, जब मनुष्य दुसरे ग्रहो मे निवास करने लगेगा । यह नैतिकता से अधिक प्रकृति का क्षतिपूर्ति नियम है। जो जैसा करेगा वैसा भरेगा। वैज्ञानिक दृष्टी से कर्म और फल के रुप मे दर्शाया जा सकता है । जैसे बीज बोएंगे वैसे फल पाएगे। अंधविश्वास सफलता (Success) मे सबसे बडी बाधक मनुष्य जीवन भर इस अज्ञानपूर्ण अंधविश्वास से चिंतिंत रहते हैं कि कही उसे कोइ धोखा न दे जाए। उसे यह ज्ञान नही होता कि मनुष्य को स्वयं उस के सिवाए कोइ दूसरा धोखा नही दे सकता, वास्तव मे, वह अपने ही मोह और भय के कारण धोखे मे फंसता है। हम भूल जाते हैं कि एक परमशक्ति भी है जो सदैव हर व्यक्ति के साथ रहती है। जब कोइ व्यक्ति किसी से कोइ समझोता या अनुबंध करता है, तो यह परमशक्ति अदृश्य और मौनरुप से एक साक्षी की तरह उपस्थित रहती है। हम इस दुनियां को धोखा दे सकते है पर इस अदृश्य शक्ति को नही। इसलिए जो व्यक्ति दूसरो को धोखा दे कर या उस का शोषण करके जो व्यक्ति सफलता (Success) या धन प्राप्त करना चाहता है उसको अन्त मे भयानक परिणामों को भुगतना पडता है। यही कारण है कि संसार के सभी संतों और महापुरुषो ने नि:स्वार्थ कार्य करने पर बल दिया है। सफलता (Success) के मार्ग मे पडने वाली सबसे बडी बाधा हमारा भय ही है, वही हमारा दुशमन है अत: हमे भयभीत नही होना चाहिए। इसको दुर करने के लिए सर्वोत्त्म उपाय यह है कि हम जिस वस्तु, आदमी या परिस्थिति से भयभीत होते है, उसी का बुद्धिमानी पूर्ण साहस से सामना करें। भय के कारणो पर विचार कर उन्हे दुर करें और जिस सद्कार्य को करने से भय अनुभव होता हो उसे परमात्मा पर अटूट श्रद्धा और आत्मविश्वास रखते हुए कर डालें। स्मरण रखिए आप का भय कोई दुसरा दुर नही कर सकता, वह केवल आप को सलाह दे सकता है, उसे दुर तो आप को ही करना होगा ।
ईष्या या जलन से हमारी मानसिक शान्ति भंग होती है जिस के कारण हम अपने कार्यो को पूरी योग्यता से नही कर पाते। इस का परिणाम यह होता है कि कर्म मे न सफलता (Success) मिलती है और न ही मानसिक आनंद। हमें दुसरो की उन्नति या चमक दमक को देख कर जलना नही चाहिए। ईष्या, द्वेष साधारण भाषा मे जलन कहते हैं। सच मे यह जलन हमारी कार्यकुशलता, मानसिक शान्ति और संतुलन को जला डालती है। अत: यदि हम अपने जीवन मे सफलता (Success) पाना चाहते हैं, तो जलन से बचना चाहिए । हमारे मस्तिष्क के विचारों में संसार को बदल देने की शक्ति है। विचारों की शक्ति को एकाग्र करके आप अपने आप जीवन की समस्त बाधाओं और कठिनाईयों को दुर कर वांछित सफलता (Success) प्राप्त कर सकते हैं विचारों की शक्ति से पहाड को भी हटाया जा सकता है। मनुष्य एक विचारशील प्राणी है, किसी भी कार्य को करने से पहले हमारे मन मे उस को करने का विचार आता है। यह मानव के विचारों की ही शक्ति है, जो आज वह अंतरिक्षयानो के द्धारा ऎसे महान व अतभुत कार्य कर रहा है जिस की पहले कलपना ही की जा सकती थी। ध्यान रहे, एक मूर्ख और वैज्ञानिक विचारो मे भौतिक अंतर होता है, जहां एक मुर्ख के विचार तर्कहीन और बेतुके होते हैं, वही वैज्ञानिक के विचार तर्कसंगत, व्यवस्थित, तथा प्राकृतिक नियमो पर आधारित होता है। जीवन मे सफल होने के लिए एक वैज्ञानिक के तरह विचार करना अवश्यक होता है । |
जिन्ना विवाद ने मुझे हिला दिया था'
26 Mar 2008, 2203 hrs IST,नवभारत टाइम्स
धनंजय नई दिल्ली : बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी को अपने राजनीतिक जीवन में लंबे समय तक मन की शांति व परिवार के लोगों के बीच रहने के सुख से वंचित रहना पड़ा। उनके जीवन को अर्थ तो मिला लेकिन वह खुशी नहीं मिली जो परिवार के साथ रहकर मिलती है। आडवाणी ने अपने मन की यह बात अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री माई लाइफ' के जिन्ना प्रसंग से संबधित चैप्टर 'आई हैव नो रेगरेट्स' में कही है। लेकिन उनकी यह व्यथा कथा उनकी किताब के उस चैप्टर से मेल नहीं खाती जिसमें उन्होंने लिखा है कि उन्होंने अंग्रेजी के उस चर्चित लेखक को गलत साबित कर दिया है जिसने लिखा है कि आप जीवन में सार्थकता व पारिवारिक खुशी, दोनों में से एक ही प्राप्त कर सकते हैं। मुझे अपने जीवन में दोनों चीजें एक साथ मिलीं। लालकृष्ण आडवानी
जिन्ना भाई साहब जिन्हें पूरा पाकिस्तान कायदे आजम, अपना मसीहा, अपना आका, अपना फरिश्ता, अपना रहनुमा मानता है, वे शराब पीते थे और सूअर का मांस खाते थे। याद रहे इस्लाम में सूअर का मांस खाने वाले को वहुत ही बुरा माना जाता है और उसे काफिर कहा जाता है। यह मैंने विकिपीडिया की साइट पर पढ़ा। साइट का चित्र भी संलग्न हैं।
डॉ. ओम वर्मा
|
जसवंत सिंह की किताब और जिन्ना-नेहरू विवाद
Bhaskar.Com Sunday, August 16, 2009 14:41 [IST]
भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह ने अपनी नई किताब में जवाहरलाल नेहरू व सरदार पटेल सहित कांग्रेस नेताओं पर पाकिस्तान जिन्ना को सौंप देने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि पाक के जन्म में अंग्रेजों ने एक कुशल दाई की भूमिका निभाई।
सिंह ने अपनी नई पुस्तक ‘जिन्ना, भारत-विभाजन के आईने में’ में विभाजन की ओर ले जाने वाली घटनाओं के साथ जिन्ना की हिंदू-मुस्लिम एकता के दूत से लेकर पाकिस्तान के कायदे-आजम बनने तक की महायात्रा का खाका खींचा है। सिंह ने 17 अगस्त को बाजार में आने वाली इस पुस्तक में विभाजन पर कई गंभीर सवाल भी उठाए हैं।
उन्होंने पुस्तक में लिखा है कि कांग्रेस ने अपनी ताकत और अपने प्रभावों को हमेशा बढ़ा-चढ़ाकर आंका। साथ ही वह अंत तक जिन्ना को केवल मुस्लिम लीग के ही नहीं, बल्कि भारत के अधिकतर मुसलमानों के नेता के रूप में मंजूर करने से झिझकती रही। वह घातक रूप से इस दोषपूर्ण मत में अटकी रही कि हिंदू-मुस्लिम समस्याओं का समाधान केवल कांग्रेस और जिन्ना के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग द्वारा नहीं किया जा सकता। इसके लिए एक बाहरी निर्णायक की जरूरत है और वे हैं अंग्रेज। सिंह के मुताबिक,‘इसका सीधा फायदा अंग्रेजों को पहुंचा, क्योंकि इस मानसिकता ने उन्हें भारत का बंटवारा करने का अधिकार व उसमें निर्णायक भूमिका निभाने का मौका दे दिया।’
‘जिन्ना, भारत-विभाजन के आईने में’ के कुछ अंश
- स्टेनली वूल्पार्ट ने ‘शेमफुल फ्लाइट’ में लिखा है कि ‘आजादी’ के उन भयानक दिनों में तबाही लाने वाली हत्याओं और विस्थापन के दौर से देश जिस तरह गुजरा, उसके बाद भी नेहरू ने माउंटबेटन के जाते समय उनसे कहा था, ‘संभव है कि हमने-आपने और मैंने, बहुत गलतियां की हों। एक या दो पीढ़ी बाद के इतिहासकार यह फैसला करने योग्य होंगे कि हमने क्या सही किया और क्या गलत। विश्वास कीजिए कि हमने सही करने की कोशिश की है और इसलिए हमारे कई पाप माफ हो जाएंगे और हमारी गलतियां भी।’
‘सवाल यह उठता है कि आखिर कांग्रेस को (विभाजन की) इतनी ज्यादा जल्दी क्यों थी? क्या इसलिए कि उनका पूरा नेतृत्व तब तक बुरी तरह थक चुका था? या इसलिए कि तब तक अंतरिम सरकार में कांग्रेस ने सत्ता का स्वाद चख लिया था और यह महसूस किया जाने लगा कि अब वे इतनी आसानी से ‘सत्ता’ को छोड़ने के इच्छुक नहीं थे।
दिल्ली में दो दिन चला देश भर के कवियों का महाकुंभ
Jan 9th, 2010
जगदीश मित्तल
(राष्ट्रीय संयोजक) राष्ट्रीय कवि संगम
सन 2010 की 2-3 जनवरी। घना कोहरा, धुंध और ठिठुराती सर्दी। दिल्ली के सुप्रसिद्ध छतरपुर मंदिर के बगल में अध्यात्म साधना केंद्र। प्रतिकूल मौसम की सभी चुनौतियों को धता बताते हुए उमड़े चले आ रहे थे -सुदूर दक्षिण मे कर्नाटक से लेकर जम्मू-कश्मीर की वादियों तक, असम शिलांग से लेकर महाराष्ट्र तक देश के 17 प्रांतों से, राष्ट्रीयता की ऊर्जा और उष्मा से प्रदीप्त सैकड़ों कविगण। लक्ष्य - राष्ट्रीय कवि-संगम का दूसरा राष्ट्रीय अधिवेशन।
कवि संगम की शुरुआत हुई थी ढाई वर्ष पहले वाल्मिकी जयन्ती 2007 में। मूल प्रेरणा थी – राष्ट्रीयता का जागरण। स्वप्न द्रष्टा थे श्री इन्द्रेश जी। शिल्पकार थे श्री जगदीश मित्तल जी और संवाहक थे देश के अनेक ख्यातनाम कविगण। एक बार फिर से आ जुटे थे लगभग 400 कवि – अपनी नाभि में राष्ट्रीयता की कस्तूरी संजोए, देश की गहरी चिंताओ और सरोकारों से उद्वेलित, देश की शक्ति और सामर्थ्य से सुपरिचित तथा देश का स्वर्णिम भविष्य गढ़ने को लालायित।
उदघाटन- सत्र को महिमामंडित किया रा॰ स्व॰ संघ॰ के पूर्व सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी ने तथा जैन आचार्य महाप्रज्ञ जी के प्रतिनिधि पूज्य शासन गौरव मुनि श्री तारा चन्द जी ने। इस सत्र में आचार्य महाप्रज्ञ जी की एक काव्यकृति ‘अनुभव के बोल’ तथा देश भर के कवियों की निर्देशिका का लोकार्पण किया गया। इस अवसर पर श्री सुदर्शन जी ने कहा कि कालचक्र में पड़कर उत्थान – पतन के दौर से गुजरती हुई भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान का युग 2011 से पुन: आरंभ होने वाला है। इसके समर्थ संवाहक बनने का श्रेय राष्ट्रीयता के प्रखर प्रणेताओं को सहज रुप से मिलने वाला है। इस नाते उन्होने राष्ट्रीय कवि संगम के कवियों को आगे बढ़कर शंखनाद करने का आह्वान किया।
संस्था के मार्गदर्शक इन्द्रेश जी ने उदघाटन वक्तव्य में कवियों को संबोधित करते हुए कहा कि साहित्य समाज का दर्पण ही नही अपने युग का दीपक भी होता है। अपने युग के यथार्थ को समझते हुए समाज के मार्गदर्शन की जिम्मेवारी भी उसी पर होती है। राष्ट्ररक्षा अभियान का कवि एक विवेक शील सिपाही होता है जो अपनी कलम रुपी तलवार से राष्ट्रविरोधी प्रवृतियों का संहार कर सकता है। उनके वक्तव्य का सार यही था कि-
“जो वक्त की आंधी से खबरदार नहीं है। कुछ और ही होगा, कलमकार नहीं है। “
राष्ट्रीय कवि संगम के इस प्रयास की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने कहा की कवि युगदृष्टा होता है, और वह राष्ट्र की समस्यायों का समाधान राष्ट्र के सामने प्रस्तुत करता है। वह अपने समय समाज और देश के लिए मशाल काम करता है। कवि संगम द्वारा देश के कवियों को एक मंचपर लाने का प्रयास सराहनीय है। इस अवसर पर श्री श्याम जाजू, डा॰ नन्दकिशोर गर्ग, श्री रविन्द्र बंसल विधायक, पूर्व महापौर श्री महेश शर्मा सहित अनेक राजनैतिक हस्तियां मौजूद थी।
प्रख्यात हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा ने ‘कविता का भविष्य और भविष्य की कविता’ पर चर्चा करते हुए कहा कि वास्तविक कविता वही है जो आम आदमी के जीवन से जुड़ती हो। उनकी बेबाक अभिव्यक्ति से कवियों को अनूठी प्रेरणा मिली। वरिष्ठ ओज कृष्णमित्र ने राष्ट्रीयता को कविता का प्राण तत्व कहा जिस कविता में राष्ट्र व समाज कल्याण की भावना ना हो उसे कविता नही कहा जा सकता। डा॰ कुँवर बेचैन, राजगोपाल सिंह, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, नरेश शांडिल्य ने कहा कविता में शिल्प के बजाय भाव पक्ष का अधिक महत्व होता है शिल्प के प्रति अत्यधिक आग्रह संवेदना की हत्या कर देता है।
राष्ट्रीय कवि संगम के राष्ट्रीय संयोजक जगदीश मित्तल ने स्मरण कराया कि कविता हम नही लिखते हमसे माँ सरस्वती लिखवाती है हम कुछ ऐसा लिख जायें जिससे आने वाली पीढ़ियां प्रेरणा ले। वर्तमान परिदृश्य में कविता की उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि दुनिया के जिस–जिस देश की कविता समृद्ध है उसने क्रांति करने की पहल की है राष्ट्रीय कवि संगम भी राष्ट्र जागरण क्रांति का अग्रदूत बनेगा।
प्रताप फौजदार की ओजस्वी कविता “सच है देश भक्ति लौ पर बलिदान पतंगा होता है मृत्यु भयभीत नही करती जब हाथ तिरंगा होता है ” बलवीर सिंह ‘करुण’ की “भारत माता की जय सुनकर जिसकी छाती फट जाती हो बोलो वह गद्दार नही तो क्या होगा,” नरेश नाज की “मेरा तुमसे एक गीत का वादा है,” रविन्द्र शुक्ल की “अंधियारों को पूज रहे सब, दीपक दूर खड़ा रोता है, जन विवेक फिर भी सोता है ” अंग्रेजी नववर्ष पर व्यंग्य करते हुए राजेश चेतन ने कहा “एक जनवरी चकाचौंध में विक्रम संवत भुला दिया है, नही जानते निज का गौरव हमने सब कुछ लुटा दिया है” कमलेश मौर्य ‘मृदु’ की “जिस दिन राष्ट्रीयता की पहचान हेतु वन्देमातरम मानदण्ड बन जायेगा, उस दिन भारत अखण्ड बन जायेगा ” पंक्तियों और बाँकेलाल जी की “सरस्वती वन्दना ” ने प्रेरित किया।
रात 3:30 बजे तक अधिवेशन परिसर में देश भर से आये 400 कवियों ने कविता पाठ किया। सभी उदीयमान नवांकुरो से लेकर सिद्ध कवियों ने अंत तक बैठकर एक–दूसरे को सुना, सराहा और महसूस किया कि अलग–अलग मातृभाषा धर्म के होते हुए भी सबकी भावधारा और अधिकांश चिंताएं सांझी हैं, किंतु अभिव्यक्ति के रंग और तेवर विविधता पूर्ण हैं। विभिन्न सत्रों का संचालन गजेन्द्र सोलंकी, अशोक बत्रा, चिराग जैन, प्रवीण शुक्ल, नील, कृष्ण गोपाल ‘विद्यार्थी’, अम्बर खरबन्दा, ने सुचारु रुप से किया।
इस अवसर पर देश के तीन कवियों मुम्बई के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त बाबा सत्यनारायण मौर्य को ‘वाल्मिकी सम्मान’, मैनपुरी के दीन मुहम्मद दीन को रसखान सम्मान’ तथा मध्य प्रदेश की डा॰ मनोरमा मिश्र को ‘मीराबाई सम्मान’ से अलंकृत कर सम्मानित किया गया।
सूर्या रोशनी के जयप्रकाश अग्रवाल, ए॰ पी॰ आई॰ ग्रुप के सत्य भूषण जैन, माइक्रोन ग्रुप के आर॰ के॰ अग्रवाल, पीयूष ग्रुप के अमित गोयल तथा अग्रवाल पैकर्स मूवर्स के रमेश अग्रवाल जैसे प्रसिद्ध उद्योगपतियों एवं प्रसिद्ध कथाकार अजय भाई की उपस्थिति भी कार्यक्रम की गरिमा बढ़ा रही थी। कार्यक्रम के समापन पर अणुव्रत न्यास के सम्पत मल नाहाटा, कवि संगम के कोषाध्यक्ष स्वदेश जैन, रोशन कंसल, शम्भू शिखर एवं राजेश पथिक ने अतिथियों का धन्यवाद किया।
भगत सिंह
भगतसिंह का यह प्रसिद्ध हुलिया उनक २१वें वर्ष की वास्तविक तस्वीर से कहीं अलग थी । ऐसा रूप उन्होंने अंग्रेज़ों से बचने के लिए अपनाया था ।
|
जन्म और परिवेश
भगत सिंह का जन्म 2८ सितंबर, 1907 को लायलपुर ज़िले के बंगा में चक नंबर 105 (अब पाकिस्तान में) नामक जगह पर हुआ था। हालांकि उनका पैतृक निवास आज भी भारतीय पंजाब के नवांशहर ज़िले के खट्करकलाँ गाँव में स्थित है। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक सिख परिवार था जिसने आर्य समाज के विचार को अपना लिया था। अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन नाम के एक क्रांतिकारी संगठन से जुड़ गए थे। भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिए नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। इस संगठन का उद्देश्य ‘सेवा,त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले’ नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरू के साथ मिलकर लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जेपी सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद ने भी उनकी सहायता की थी। क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने नई दिल्ली की सेंट्रल एसेंबली के सभागार में 8 अप्रैल, 1929 को 'अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिए' बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।
इन्क़लाब से ताल्लुक
उस समय भगत सिंह करीब १२ वर्ष के थे जब जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियांवाला बाग पहुंच गए। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रांतिकारी किताबे पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? गांधीजी के असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गांधीजी के तरीकों और हिंसक आन्दोलन में से अपने लिए रास्ता चुनने लगे । गांधीजी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने कि वजह से उन्मे एक रोश ने जन्म लिय और् अंततः उन्होंने 'इंकलाब और देश् कि आजादि के लिए हिंसा' को अपनाना अनुचित नहीं समझा । उन्होंने कई जुलूसों में भाग लेना चालू किया तथा कई क्रांतिकारी दलों के सदस्य बन बैठे । बाद मे चल्कर वो अप्ने दल के प्रमुख क्रान्तिकारियो के प्रतिनिधि बने। उन्के दल मे प्रमुख क्रन्तिकरियो मे आजाद, सुख्देव्, राज्गुरु इत्यदि थे।
लाला लाजपत राय
१९२५ में साईमन कमीशन के बहिष्कार के लिए भयानक प्रदर्शन हुए । इन प्रदर्शनों मे भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठीचार्ज भी किया । इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई । अब इनसे रहा न गया । एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिंटेंडेंट सैंडर्स को मारने की सोची । सोची गई योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु सैंडर्स के घर के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे । उधर बटुकेश्वर दत्त अपनी साईकल को लेकर ऐसे बैठ गए जैसे कि वो ख़राब हो गई हो । दत्त के इशारे पर दोनो सचेत हो गए । उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डीएवी स्कूल की चाहरीदीवारी के पास छिपे इनके घटना के अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे । सैंडर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधा उसके सर में मारी जिसके तुरत बाद वह होश खो बैठा । इसके बाद भगत सिंह ने ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इंतज़ाम कर दिया । ये दोनो जैसे ही भाग रहे थे उसके एक सिपाही ने, जो एक हिंदुस्तानी ही था, इनका पीछा करना चालू कर दिया । चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया -'आगे बढ़े तो गोली मार दूंगा' । नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी । इस तरह इन लोगों ने लाला लाजपत राय के मरने का बदला ले लिया ।
असेंबली में बम फेंकना
भगत सिंह मूलतः खूनखराबे के जोरदार पक्षधर नहीं थे । पर वे मार्क्स के सिद्धांतो से प्रभावित थे तथा समाजवाद के पक्षधर । इसकारण से उन्हें पूंजीपतियों क मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी । उस समय अंग्रेज सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति ही प्रकाश में आ पाए थे । अतः अंग्रेजों की मजदूरों के प्रति रूख़ से ख़फ़ा होना लाज़िमी था । एसी नीतियों के पारित होने को निशाना बनाना उनके दल का निर्णय था । सभी चाहते थे कि अंग्रेजों को पता चले कि हिंदुस्तानी जगे हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के खिलाफ़ क्षोभ है । ऐसा करने के लिए उन लोगों ने लाहौर की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की सोची ।
भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा ना हो तथा अंग्रेजो तक उनकी 'आवाज़' पहुंचे । हंलांकि उनके दल के सब लोग एसा ही नहीं सोचते थे पर अंत में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया । निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनो ने एक निर्जन स्थान पर बम फेंक दिया । पूरा हॉल धुएँ से भर गया । वे चाहते तो भाग सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें फ़ाँसी कबूल है । अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया । उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने थे । बम फटने के बाद उन्होंने इन्कलाब-जिंदाबाद का नारा लगाना चालू कर दिया । इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गई और इनको ग़िरफ़्तार कर लिया गया ।
जेल के दिन
जेल में भगत सिंह ने करीब २ साल गुजारे । इस दौरान वे कई क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे । उनका अध्ययन भी जारी रहा । उनके उस दौरान लिखे ख़त आज भी उनके विचारों का दर्पण हैं । इस दौरान उन्होंने कई तरह से पूंजीपतियों को अपना शत्रु बताया है । उन्होंने लिखा कि मजदूरों के उपर शोषण करने वाला एक भारतीय ही क्यों न हो वह उसका शत्रु है । उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ। जेल मे भगत सिंह और बाकि साथियो ने ६४ दिनो तक भूख हद्ताल कि। ६४वे दि
फ़ाँसी
भगतसिंह की माता का देश के नवयुवकों के नाम संदेश
२३ मार्च १९३१ को शाम में करीब ७ बजकर ३३ मिनट पर इनको तथा इनके दो साथियों सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी दे दी गई । फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे । कहा जाता है कि जब जेल के अधिकारियों ने उन्हें सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा - 'रुको एक क्रांतिकारी दूसरे से मिल रहा है' । फिर एक मिनट के बाद किताब छत की ओर उछालकर उन्होंने कहा - 'चलो'।
फांसी पर जाते समय वे तीनों गा रहे थे -
दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त
मेरी मिट्टी से भी खुस्बू ए वतन आएगी ।
फांसी के बाद कोई आन्दोलन ना भड़क जाए इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किए तथा फिर इसे बोरियों में भर कर फ़िरोजपुर की ओर ले गए जहां घी के बदले किरासन तेल में ही इनको जलाया जाने लगा । गांव के लोगो ने आग देखी तो करीब आए । इससे भी डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ो को सतलुज नदी में फेंक कर भागने लगे । जब गांव वाले पास आए तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो को एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया । ओर भागत सिन्घ हमेशा के लिये अमर हो गये इसके बाद लोग अंग्रेजों के साथ साथ गांधी जी को भी इनकी मौत का जिम्मेवार समझने लगे । इसकारण जब गांधीजी कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हिस्सा लेने जा रहे थे तो लोगों ने काले झंडे के साथ गांधीजी का स्वागत किया । किसी जग़ह पर गांधीजी पर हमला भी हुआ । इसके कारण गांधीजी को अपनी यात्रा छुपकर करनी पड़ी ।
व्यक्तित्व== जेल के दिनों में उनके लिखे खतों तथा लेखों से उनके विचारों का अंदाजा लगता है । उन्होंने भारतीय समाज में लिपि (पंजाबी के गुरुमुखी तथा शाहमुखी तथा हिंदी और उर्दू के संदर्भ में), जाति और धर्म के कारण आई दूरी से दुःख व्यक्त किया था । उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किए गए अत्याचार को ।
भगत सिंह को हिंदी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी जो कि उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से सीखी थी । उनका विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जाएगी और ऐसा उनके जिंदा रहने से शायद ही हो पाए । इसी कारण उन्होंने सजा सुनाने के बाद भी माफ़ीनामा लिखने से मना कर दिया । उन्होंने अंग्रेजी सरकार को एक पत्र लिखा जिसमें कहा गया था कि उन्हें अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ भारतीयों के युद्ध का युद्धबंदी समझा जाए तथा फ़ासी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाए ।
फ़ासी के पहले ३ मार्च को अपने भाई कुलतार को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा था -
उसे यह फ़िक्र है हरदम तर्ज़-ए-ज़फ़ा (अन्याय) क्या है
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है
दहर (दुनिया) से क्यों ख़फ़ा रहें,
चर्ख (आसमान) से क्यों ग़िला करें
सारा जहां अदु (दुश्मन) सही, आओ मुक़ाबला करें ।
इससे उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है ।
ख्याति और सम्मान
सुखदेव, राजगुरु तथा भगत सिंह के लटकाए जाने की ख़बर - लाहौर के ट्रिब्यून के मुख्य पृष्ठ पर
उनकी मृत्यु की ख़बर को लाहौर के दैनिक ट्रिब्यून तथा न्यूयॉर्क के एक पत्र डेली वर्कर ने छापा । इसके बाद में भी मार्क्सवादी पत्रों में उनपर लेख छपे, पर भारत में उन दिनों मार्क्सवादी पत्रों के आने पर प्रतिबंध लगा था इसलिए भारतीय बुद्धिजीवियों को इसकी ख़बर नहीं थी । देशभर में उनकी शहादत को याद किया गया ।
दक्षिण भारत में पेरियार ने उनके लेख मैं नास्तिक क्यों हूँ पर अपने साप्ताहिक पत्र कुडई आरसु में के २२-२९ मार्च, १९३१ के अंक में तमिल में संपादकीय लिखा । इसमें भगतसिंह की प्रशंसा की गई थी तथा उनकी शहादत को गांधीवाद के उपर विजय के रूप में देखा गया था ।
आज भी भारत और पाकिस्तान की जनता उनको आज़ादी के दीवाने के रूप में देखती है जिसने अपनी जवानी सहित सारी जिंदगानी देश के लिए समर्पित कर दिया ।
भगत सिंह की शहादत से संदर्भित स्वाधीनतापूर्व की रचनायें [विशेष प्रस्तुति] – साहित्य शिल्पी
भगत सिंह नें फाँसी के फंदे को चूमा और इस बूढे देश की नसें उबल पडीं। क्रांति दावानल हो गयी और अंग्रेज सूरज अस्त होने लगा।...। प्रस्तुत कविताओं के अंश उस दौर से हैं जब भगत सिंह को फाँसी लगायी जाने वाली थी, तथा कुछ रचनायें उन्हे फाँसी लगाये जाने के बाद उपजे जनाक्रोश की अभिव्यक्ति हैं। महत्वपूर्ण इन रचनांशों का कविता-तत्व नहीं है अपितु इन्हे प्रस्तुत करने का उद्देश्य आज भी उनकी प्रासंगिकता से परिचित कराना है।
---------------------------------------------------------
है अफसोस कि लाशों को उठाने भी न पाए,
हम फूल शहीदों पे चढाने भी न पाए॥
हम अश्क चिताओं पे गिराने भी न पाये
हम आतशे-सोजां को बुझाने भी न पाये॥
-अज्ञात
---------------------------------------------------------
सुखदेव, भगत सिंह, राजगुरु, थे शमअ-वतन के परवाने
जो सोज दिलों में उनके था, उस सोज को कोई क्या जाने॥
- मौलाना इनामौला खाँ हसनपुरी
---------------------------------------------------------
हम अपने कौमी शहीदों की, क्यों याद दिलों से दूर करें
क्या और किसी नें भुलाये हैं, क्या और किसी नें बिसारे हैं॥
सुखदेव, भगत सिंह, राजगुरु, ये तीनों देश दुलारे हैं
फाँसी पे लटक कर जान जो दी, जी-जान से हमको प्यारे हैं॥
-अज्ञात
---------------------------------------------------------
कहती है माता कर रुदन, कहाँ है हमारा मूलधन,
गोदी से मेरी छीन कर, किसने उसे हटा दिया॥
-अज्ञात
---------------------------------------------------------
यह छींटे खून की उस दमन-ए-कातिल की कहानी है,
शहीदान-ए-वतन की कुछ निशानी, देखते जाओ॥
अभी लाखों ही बैठे हैं बुझाने प्यास अपनी
खतम हो जायेगा खंजर का पानी, देखते जाओ॥
-अज्ञात
---------------------------------------------------------
सुखदेव, भगतसिंह, राजगुरु, आजादी के दीवाने थे।
वह मरे नहीं हैं जिंदा हैं, वह अमर शहीद कहायेंगे
-कमल
---------------------------------------------------------
तूने भारत चमन को सींचा है लहू से।
बुरा हाल है देश भारत का ए लाल
-प्रभु नारायण मिश्र
---------------------------------------------------------
आजादी का दीवाना था सरदार भगत सिंह।
फाँसी पर गया झूल वो सरदार भगत सिंह॥
आलम की एक शान था सरदार भगत सिंह।
हर बागी का अरमान था सरदार भगत सिंह॥
- एन.एल.ए बमलट
---------------------------------------------------------
हुआ देश का तू दुलारा भगत सिंह
झुके सर तेरे आगे, हमारा भगत सिंह॥
-अभय
---------------------------------------------------------
भगत सिंह को देख कर चर्ख बोला
दिखाये जिमीं नें जवां कैसे कैसे॥
वतन के दुलारे तडप कर पुकारे,
वतन के भी हैं पासबां कैसे कैसे॥
-हसरत
---------------------------------------------------------
अमर हो गये भगत सिंह, अमर हुआ इतिहास।
जिनकी स्मृति मात्र से उपजे नव विश्वास॥
साहस, धीरज, वीरता का अनुपम उपमान।
धन्य भगतसिंह धन्य हो, महाबीर बलवान॥
-केदारनाथ मिश्र
---------------------------------------------------------
तुम हो शहीद दे गये सीख, भारत के वीर जवानों को
दे गये प्रेरणा बलिदानी, आजादी के दीवानों की॥
तेरे चरणों पर परमवीर, नित श्रद्धा सुमन चढाता हूँ
स्वीकार करो हे त्याग मूर्ति, चरणों में शीष नवाता हूँ..
-अवध किशोर यादव
---------------------------------------------------------
वतन पे जां है गंवाने, रहे रहे न रहे।
खुदा के वास्ते कर दो इसे वतन पे निसार
जवानों, फिर ये जवानी, रहे रहे न रहे॥
जला के वह मेरी मैयत बहाएं सतलुज में
फिर उनकी तेग में पानी रहे रहे न रहे॥
-मुश्ताक
---------------------------------------------------------
फाँसी की रस्सियों से हम जा रहे खुदा घर
भारत स्वतंत्र करके तुम भी वहीं पर आना॥
-माता प्रसाद शुक्ल “शुक्ला”
---------------------------------------------------------
हम ज़िन्दगी से रूठ के बैठे हैं जेल में
अब जिंदगी से हमको मनाया न जाएगा॥
हमने लगाई आग है जो इंकलाब की
इस आग को किसी से बुझाया न जायेगा॥
-अज्ञात
एक खुला पत्र सरदार भगत सिंह के नाम / राजेश कश्यप
परम श्रद्धेय भाई सरदार भगत सिंह जी, वन्देमातरम् !!!
आशा ही नहीं, अपितु पूर्ण विश्वास है कि आप जहाँ भी होंगे, बहुत दु:खी होंगे। क्योंकि आपकी आत्मा कभी स्वतंत्र नहीं रही होगी। आपको पहले ही पता था कि इस कुर्बानी के बाद देश तो आजाद हो जाएगा, लेकिन इसके बाद यह अपनों का गुलाम हो जाएगा। अपनों की गुलामी दूर करने के लिए उसे स्वयं दोबारा आना होगा। इस कसक और तड़प ने आपकी आत्मा को बैचेन बनाए रखा होगा। लेकिन भाई भगत, मुझे बड़ी हैरानी हो रही है कि जो लाल अपनी भारत माँ को कष्टों में देखकर जिन्दगी में एक पल भी चैन से नहीं बैठा, वही लाल छह दशक से कहाँ छिपा बैठा है?
भाई जी…अब तो अपने वतन लौट आओ। आज देश को फिर आपकी जरूरत है। देश एक बार फिर गुलामी की बेड़ियों में…हाँ..हाँ…हाँ…गुलामी की बेड़ियों में जकड़ता चला जा रहा है। पहले तो सिर्फ अंग्रेजों की राजनीतिक रूप में गुलामी थी। लेकिन आज तो पता नहीं कितनी तरह की गुलामी हो गई है? हम स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि राष्ट्रीय त्यौहारों एवं अन्य धार्मिक त्यौहारों को भी संगीनों के साये में मनाने को मजबूर हैं, कि कहीं कोई आतंकवादी हमला न हो जाए अथवा कहीं कोई बम बगैरह न फट जाए? आपको आ’चर्य हो रहा होगा न! एक वो दिन था जब गोलियों की बौछारों,लाठियों की मारों और तोपों की गर्जनाओं की गर्जनाओं के बीच वन्देमातरम्…भारत माता की जय…इंकलाब-जिन्दाबाद आदि के उद्घोषों के बीच बड़े गर्व के साथ सरेआम झण्डा फहराया जाता है और आज? गणतंत्र दिवस परेड और स्वतंत्रता दिवस पर ध्वजारोहण की औपचारिकता आतंकवाद के भय के चलते भयंकर सुरक्षा बंदोबस्तों के बीच डरते हुए स्कूलों के पचास-सौ छोटे-छोटे मासूम बच्चों को पी.टी. परेड में इक्कठा करके पूरी की जाती है। कहाँ गया वो जन-सैलाब और वो समय जब देशभक्ति के नारों को उद्घोषित करता आम आदमी भी दिल्ली के लालकिले की प्राचीर पर राष्ट्रीय दिवस मनाने पहुँचता था?
आश्चर्य में मत पड़िए भगत जी! वो आम आदमी आज भी जिन्दा है, लेकिन अपनों के खौफ के साये में कहीं किसी कोने में छुपने को मजबूर है। यहाँ पर सुरक्षा के नाम पर कपड़े तक उतार लिए जाते हैं। और तो और हमारे देश के सर्वोच्च प्रतिनिधि भी देश -विदेश में गाहे-बगाहे सुरक्षा के नाम पर स्वयं अपने कपड़े तक उतरवा चुके हैं और उतरवा भी रहे हैं। जब हमारे कर्णधारों का ये हाल है तो भला आम आदमी की क्या बिसात! उसे तो बिना किसी बात के भी सरेआम नंगा होना पड़ता है।
आजादी के बाद अपने ही सत्तासीन लोग अपनी ही भारत माँ का ‘चीर-हरण’ कर रहे हैं। भय, भूख, भ्रष्टाचार, अत्याचार आदि का बोलबाला है। दे’ा की ८० प्रतिशत जनता मात्र २० रूपये प्रतिदिन की आमदनी में गुजारा करने को मजबूर है। शेष २० प्रतिशत मलाईखोर लोग हवाले-घोटाले करने में मशगूल हैं। विश्व बैंक कहता है कि भारत में ७० प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं और हमारे अपने लोग इसे सिर्फ २५-२६ प्रतिशत ही बता रही है। देश का कई हजार खरब रूपया काले धन के रूप में विदेशी बैंकों में जमा पड़ा है और यहाँ की अस्सी फीसदी जनता रोटी, कपड़े और मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जीने को लाचार है।
आज किसी को देशभक्ति याद नहीं है। यदि याद है तो सिर्फ पापी पेट के लिए रोटी का जुगाड़ करना। यह जुगाड़ चाहे ईमानदारी से हो या फिर लूटमार अथवा बेईमानी से। फिरौती, लूट, हत्या, बलात्कार, डकैती, धोखाधड़ी, चोरी, मिलावट, छीना-झपटी, झूठ, फरेब, ढोंग, झूठा तमाशा, काला धन्धा….भला ऐसा क्या आपराधिक कार्य नहीं हो रहा है इस देश में जो अपराध तंत्र से जुड़ा न हो? ‘अन्धा बाँटे-रेवड़ी, अपनों-अपनों को दे’ की तर्ज पर जिसकी सत्ता में कोई पहुँच है अथवा कोई सिफारिश है या फिर पैसा है या फिर वोटरों की बड़ी संख्या मुठ्ठी में है…केवल उन्ही को ही नौकरी अथवा किसी तरह का कोई सत्ता-सुख का अं’ा नसीब हो पाता है। अंगे्रजी काल में शिक्षा पाकर नौजवान ‘पढ़े-लिखे क्लर्क’ बनते थे और आज शिक्षा पाकर पढ़े-लिखे नौजवान बेरोजगार अथवा अपराधी बन रहे हैं।
भाई भगत बहुत दु:ख की बात यह भी है कि हमारे नौजवान भी अपने पथ से भटक से गए हैं। उसे प’िचमी जगत की चकाचौंध ने पागल कर दिया है। एक वो समय था जब ‘स्वदेश’ के नाम पर सभी कीमती विदेशी चीजों की सरेआम होली जलाई गई थी, वहीं आज हर चीज विदेशी हो गई है। यहाँ तक की खाना-पीना, ओढ़ना-पहनना, घूमना-फिरना, उठना-बैठना, गाना-बजाना, खेलना-कूदना, पढ़ना-लिखना, सोचना-समझना आदि सब भी! अधिकतर लड़के-लड़कियाँ जाते हैं अपना कैरियर बनाने स्कूल या कॉलेज में और पहँुचते हैं शानदार फाईव स्टार होटलों में मौजमस्ती और अय्याशी करने। अपने परिवार, खानदान व भविष्य के प्रति एकदम लापरवाह होकर न जाने कितने नशों में हो रहे हैं चूर! सती, सावित्रि, सीता, अनसूइया आदि के देश में आज कालगल्र्स, सेक्सवक्र्स आदि का ही कोई छोर नहीं है। जहाँ शिक्षार्थियों के बस्तों में देशभक्ति से ओतप्रोत साहित्य होता था आज पोर्न (ब्लयू) फिल्मों का साहित्य व सीडियाँ जमा पड़ा है। टी.वी. व सिनेमा सरेआम सैक्स एवं अश्लीलता घर-घर परोस रहा है। गलत राह पर चल कर जवान अपनी जवानी पानी की तरह बहा रहे हैं और आधे से अधिक सेना की भर्ती के लिए होने वाली दौड़ में ही बाहर हो रहे हैं। भगत जी…परेशान मत होइये!! ये तो सिर्फ समस्या की बानगी भर है!!!
आप न्याय व्यवस्था की तो धज्जियाँ उड़ रही हैं। झूठे व मक्कार लोग पैसे, शोहरत, बाहुबल के दम पर कानून की देवी को अपनी कठपुतली बनाए हुए हैं। गरीब आदमी के लिए न्याय दूर की कौड़ी बन गया है। गा्रम पंचायतों में भी दंबगों और ऊँची पहुँच वालों की ही चलती है। यदि कोई सीदा-सादा व भोला-भाला आदकी सच्चाई व न्याय की बात करे तो सबको अखरती है। आज इस देश में सच्चाई व न्याय के रास्ते पर चलने वाले व्यक्ति को या तो मौत के घाट उतार दिया जाता है या फिर अनगिनत धाराओं के तहत झूठे मुकदमों में फंसाकर तिल-तिल मरने को मजबूर कर दिया जाता है। अपराधों, भ्रष्टाचारों में लिप्त दबंग लोग चुनाव लड़ते हैं और संसद की कुर्सियों का बोझ बनते हैं। विभिन्न पार्टियों के रूप में ये लोग बारी-बारी से आते हैं और जनता की आँखों में धूल झोंककर पाँच साल देश में लूट मचाकर चले जाते हैं। आज कोई भी आदर्श नेता हमारे देश में रहा ही नहीं है…भला इससे बढ़कर देश का क्या दुर्भाग्य होगा?
भाई भगत सिंह, मैं माफी चाहता हूँ कि इस दु:ख भरे पत्र को और भी लंबा करता ही चला जा रहा हूँ। मैं इसे और लंबा नहीं करूंगा। मैंने आपको सिर्फ इशारा भर किया है। यदि इस पत्र के माध्यम से मेरी भावना आप तक पहुँच जाए तो मेहरबानी करके इस देश की तरफ एक बार जरूर देखना! भाई जी नहीं…कल देखना!! क्योंकि आज तो बहुत सारे मदारी, नट, कलाकार, अभिनेता, स्वाँगी आदि लोग बड़े-बड़े चमकदारों बैनरों के साथ आपकी सहादत को सलाम करते हुए, देशभक्ति के राग अलापते हुए, चौराहों पर खड़ी जर्जर आपकी प्रतिमाओं पर हार पहनाते, आपके नाम पर रक्तदान शिविर लगाते, चर्चा-संगोष्ठि या सेमीनार करते, झूठे पे्रस नोट जारी करते और देशभक्ति के झूठे मुखौटे लगाते हुए ही नजर आ सकते हैं। कृपा इस पत्र पर अमल करते हुए आप कल ही हिन्दुस्तान पर नजर डालना और नजर डालने के बाद अत्यन्त दु:खी हो जाओ तो मुझे गाली मत देना, कि आपको यह सब लिखकर बताने का आज ही मौका मिला है? अरे भाई जी, लिखना तो बहुत पहले चाहता था, लेकिन कहीं कोई मुझे पागल करार न दे दे, इसलिए नहीं लिखा। लेकिन आज सब चिन्ताओं एवं भ्रमों को दूर करके यह पत्र लिखने का साहस जुटा पाया हूँ। इस पत्र के बारे में कोई भी चाहे कुछ कहे, अब मुझे कोई परवाह नहीं। यह पत्र लिखने के बाद यदि मुझे एक व्यक्ति की भी शाबासी या हौंसला मिला तो भाई मैं समझूँगा कि कहीं किसी कोने में आज भी कोई भगत सिंह जिन्दा है!!! भाई जी, यदि आप अब तक इस दोबारा इस देश में नहीं आये हो तो मेहरबानी करके जल्दी से जल्दी जरूर आ जाओ….क्योंकि ये देश तुम्हें चीख-चीखकर पुकार रहा है। हाँ…इस बार एक रूप में मत आना! क्योंकि समस्याएँ अब एक नहीं अनेक हो गई हैं। इसलिए मेरी राय तो यह है कि आप अपनी आत्मा को आज की नौजवान पीढ़ी की आत्माओं में अंशों के रूप में आत्मसात कर दो ताकि अनेक भगत सिंह, अनेक रूपों में, अनेक समस्याओं से लड़ सकें और अपनी भारत माता को अपनों व अपनों के दर्द को जल्द से जल्द दूर कर सकें। जब आप नौजवानों में आ जाओ तो कृपया पत्र का जवाब तो जरूर देना।
अच्छा अब जयहिन्द और नमस्ते। इन्कलाब-जिन्दाबाद।। भारत माता की जय।।।
आपका स्नेहाकांक्षी,
राजेश कश्यप
गीता का कर्मवाद |
-डा. अमित कुमार शर्मा
गांधीजी जानते थे कि इस देश में केवल बंगाल एवं महाराष्ट्र की परंपरा भर नहीं है। कश्मीरी शैव दर्शन परंपरा, पंजाब की सिक्ख तथा आर्य समाजी परंपराएं, काशी की परंपरा, मथुरा-वृंदावन की परंपराएं भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं। दरअसल मोटे तौर पर भारतीय परंपरा के तीन स्वरूप देखने को मिलते हैं-
1. प्रवृत्तिमार्गी परंपराएं,
2. निवृत्तिमार्गी परंपराएं और
3. गौतम बुद्ध एवं शंकराचार्य की परंपरा। वैदिक धर्म से जुड़ी परंपराएं मूलत: प्रवृत्ति मार्गी रही हैं। जैनधर्म से जुड़ी परंपराएं मूलत: निवृत्ति मार्गी रही हैं। उपनिषदों/वेदांत की परंपरा मूलत: निवृत्ति मार्गी कही जा सकती है। प्रवृत्ति मार्ग से जुड़ी परंपराएं राज्य सत्ता एवं लोक सत्ता (स्टेट एण्ड सिविल सोसाइटी) दोनों स्तरों पर जीवन एवं चिन्तन को सृजनशील बनाए रखती हैं। निवृत्ति मार्ग में व्यक्तिगत मुक्ति के लिए उपासना को व्यवस्थित करना संप्रदायों का मूल लक्ष्य होता है, इसमें सामुदायिक अभियान प्रमुख नहीं होता।
गौतम बुद्ध की परंपरा गहरे अर्थ में वैदिक परंपरा से भी ज्यादा प्रवृत्ति मार्गी है। इसमें राज्य संगठन एवं लोक सत्ता में द्वैत नहीं है। गौतम बुद्ध की प्रेरणा से सम्प्रदाय (लोक) को ही राज्य की तरह संगठित किया गया। मठों एवं अखाड़ों तथा विहारों के संगठन सिद्धांत या शासन सूत्र मूलत: प्रवृत्ति मार्गी हैं। जैनों का मार्ग (श्रमण मुक्ति का मार्ग) संन्यास मार्ग था। जैन धर्म में मुनि निश्चित रूप से गृहस्थ से श्रेष्ठ कहा जा सकता है। वैदिक धर्म मूलत: गृहस्थ धर्म है। अत: संन्यासी का निवृत्ति मार्ग एवं गृहस्थ का प्रवृत्ति मार्ग दोनों में द्वैत था। भगवान कृष्ण ने इन्हें समानधर्मी बनाया, समानंतरता की बात की। गौतम बुद्ध, नागार्जुन एवं शंकराचार्य ने तो संन्यासियों को एक प्रकार के वैकल्पिक गृहस्थ धर्म के रूप में संगठित किया।
संन्यासी के लिए केवल व्यक्तिगत साधना करना अनुचित माना जाने लगा। विहार में, मठों में एवं अखाड़ों में सामूहिक साधना शुरू हुई। इस सूत्र को समझना आवश्यक है। इसको समझने में शुक्लजी के कई निबंध मदद करते हैं। भारत की प्रवृत्ति मार्गी परंपरा को समझने के लिए प्राचीन भारतवासियों का पहनावा, ह्वेनसांग और मेगस्थनीज आदि के भारतवर्षीय वर्णन की भूमिका, भारत के इतिहास में हूण, महाराज कनिष्क का स्तूप, भारतीय शिल्प कला, प्राचीन भारत का एक शक राजा, बुद्ध देव का परिचय, राज्य प्रबंध शिक्षा की भूमिका जैसे शुक्लजी के निबंध उपयोगी हैं। हिन्द स्वराज और महात्मा गांधी को समझने में शुक्लजी के निबंधों से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद मिल सकती है।
आधुनिक भारतीय जीवन-मूल्य के निर्माण में पश्चिमी परंपरा, ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, साहित्य-मनोविज्ञान आदि की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। आधुनिक विश्वविद्यालयों में भारतीय परंपरा को पश्चिमी दृष्टि से देखने का चलन रहा है। विश्वविद्यालयों में यह भी माना जाता है कि भारतीय समाज के सामने केवल एक विकल्प है पश्चिम की नकल करना। पश्चिम की नकल करने का तो कोई विकल्प नहीं माना जाता परंतु पश्चिमपरस्त भारतीयों में दो संप्रदाय विकसित हो गए हैं।
1. भारत को मूलत: पश्चिम से ज्ञान-विज्ञान सीखना चाहिए और पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान तथा भारतीय धर्म के बीच सामंजस्य स्थापित करना चाहिए।
2. भारत को पश्चिम से मूलत: धर्म-मूल्य एवं नैतिकता सीखनी चाहिए। नैतिकता के तहत धर्मनिरपेक्षता, प्रजातंत्र एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे मूल्य शामिल हैं। इस संदर्भ में शुक्लजी का लेख ‘भारत को क्या करना चाहिए’ का महत्व स्वयंसिद्ध है। इसमें इन्होंने लिखा है कि प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति द्वारा कोई विशेष परिणाम प्राप्त करने के लिए अपनाए गए तरीके के सामर्थ्य में विश्वास होना चाहिए; विशेष परिणाम, जो आगे चलकर एक बड़े सामान्य लक्ष्य का अनिवार्य अंग होने जा रहा हो। लेकिन जिस क्रम में हमें आगे बढ़ना है, वह हमारी आंख से ओझल नहीं होना चाहिए। महत्व के लिहाज से जिस चीज पर हमें सबसे पहले ध्यान देना चाहिए। वह है सामाजिक बुराइयों को दूर करने का काम, क्योंकि इनका असर सीधे उस सामाजिक स्रोत पर पड़ता है, जहां से हमें प्रत्येक क्षेत्र में काम करने के लिए कार्यकर्ता प्राप्त होते हैं (पृष्ठ संख्या 111, भारत को क्या करना चाहिए)।… वस्तुत: प्रत्येक भारतीय को यह साफ-साफ पता होना चाहिए कि उनका देश दिन-ब-दिन और गरीब क्यों होता जा रहा है? अगर आप चाहें तो इसे राजनीतिक शिक्षा भी कह सकते हैं। इस प्रकार की शिक्षा देने के लिए हमें विभिन्न तरीके और साधन अपनाने चाहिए। भारतीय जनमानस को एक सामंजस्यपूर्ण धरातल पर लाने में देशी भाषा के बढ़ते हुए साहित्य की जो भूमिका है, उसकी शायद हम उपेक्षा नहीं कर सकते। (पृष्ठ संख्या 112, 113, भारत को क्या करना चाहिए)।
शुक्लजी के इन विचारों का स्वर हिन्द स्वराज के स्वरों का समानधर्मी भी है और पूरक भी। अत: गांधीजी और शुक्लजी को एक दूसरे का विरोधी न मानकर तत्कालीन भारत के वैचारिक-सांस्कृतिक द्वन्द्व, दुविधा एवं संघर्ष का प्रवक्ता मानना ही ज्यादा सही है। रामचन्द्र शुक्ल तुलसीदास और रामभक्ति के हिन्दी में पहले आधुनिक व्याख्याकार हैं। तुलसीदास का रामचरितमानस उनका साहित्यिक मानक था। वे अध्यात्म एवं निरे उपयोगितावाद दोनों को अस्वीकार करते हैं। तुलसीदास की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि वीरता, प्रेम आदि जीवन का कोई एक ही पक्ष न लेकर उन्होंने सम्पूर्ण जीवन और उसके भीतर आने वाली अनेक दशाओं के प्रति अपनी संतुलित एवं समन्वयवादी दृष्टि को प्रस्तुत किया है। एक ओर गांधी के इष्टदेव राम थे, दूसरी ओर सनातन हिन्दू धर्म की जो व्याख्या गांधी बार-बार प्रस्तुत करते रहे, वह व्याख्या शुक्लजी द्वारा प्रस्तुत तुलसीदास और रामचरितमानस के सनातन धर्म का समानधर्मी है। तीसरा, राणाडे और गोखले की तरह गांधी को भी कुछ लोग नरम दल का ही प्रतिनिधि मानते हैं।
महात्मा गांधी के बारे में जे.पी., एस. ओबेराय, धर्मपाल एवं पुखराज जैन जैसे विद्वानों द्वारा प्रस्तुत व्याख्या को यदि सही माना जाए तो हिन्द स्वराज, चरखा, बुनियादी शिक्षा, सर्वोदय और अन्त्योदय एवं सनातन धर्म एवं सभ्यता की अवधारणाओं के केंद्र में व्यावसायिक श्रेणियों का हित या दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व नहीं है बल्कि इस देश के आम आदमी खासकर कामीन/बलुतेदार जैसी सेवा करने वाली जातियां हैं (सर्विस एण्ड प्रोफेशनल कास्ट्स)। अव्यावसायिक श्रेणियों के अन्तर्गत देश की अधिकांश जातियां और लोग आ जाते हैं जिनके हितों, दृष्टियों एवं जीवन पद्धति में गुणात्मक अन्तर है। इस दृष्टि से शुक्लजी द्वारा प्रस्तुत गांधीजी का मूल्यांकन एकपक्षीय और असंतुलित लगता है।
इसके बावजूद केवल भारतीय परम्परा ही नहीं, गांधी की विरासत के निष्पक्ष मूल्यांकन में भी शुक्लजी के लेखों से काफी मदद मिल सकती है। भारतीय परंपरा का जो रूप शुक्लजी के समय में उपलब्ध था, उसकी व्याख्या के साथ-साथ उसके भविष्य को लेकर उस समय के चिन्तकों में गंभीर मतभेद था। यह स्वाभाविक भी है।
शुक्लजी ने तत्कालीन सामाजिक स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के रूप में घृणित वाणिज्यवाद ने भारत में कदम रखा और समाज के द्विस्तरीय विभाजन के आधार पर जो सामंजस्य इतने दिनों से चला आ रहा था उसे अस्त-व्यस्त कर दिया। कम्पनी अपने व्यापारिक प्रचार-प्रसार के लिए बनियों पर आश्रित थी। इसलिए उन्होंने केवल उन्हीं के अनुकूल परिस्थितियां उत्पन्न की। कम्पनी के गुमाश्ता और एजेण्ट की हैसियत से वृहत्तर लाभ कमाने के अतरिक्त उन्होंने अपने क्रय के लिए ही दूसरों से खाली कराई गई जमीन भी हासिल कर ली। बड़े क्षेत्र के राजस्व का कार्यभार उन्हें सौंपा गया, वे ही दीवान बनाए गए…।
बर्क ने अपनी पुस्तक ”हैस्टिंग्ज का इंपीचमेन्ट” में इस स्थिति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया है। भूमि से कृषक श्रेणियों के सम्बंध का स्थायित्व सदा के लिए लुप्त हो गया और वे उत्तरोत्तर बढ़ती कंगाली की अवस्था में छोड़ दिए गए। लोभी वकीलों की सेना के साथ न्यायालयों ने उनकी बरबादी पूरी कर दी। कानूनी जटिलताओं के कारण मुकदमा भूमिगत हितों का ऐसा अपरिहार्य लक्षण हो गया है कि सरकारी मांगों के भुगतान के बाद औसत जमींदार के पास कुछ शेष नहीं बचता। …सरकारी भूराजस्व नीति बहुत हद तक जमीन के सच्चे अधिकारी एवं कृषक श्रेणियों की शोचनीय अवस्था के लिए उत्तरदायी है। (पृष्ठ संख्या 117, असहयोग अव्यापारिक श्रेणियां)
किसान और जमींदार के बीच कोई अभेद्य दीवार नहीं है। एक किसान जमींदार हो सकता है और एक जमींदार किसान हो सकता है। वे स्वयं देख सकते हैं कि इन चीजों का वास्तविक उद्देश्य सम्पूर्ण ग्रामीण जनसंख्या को अधिक कमजोर दीनहीन किसानों में इस प्रकार बदल देना है जिससे उनमें से किसी के पास सामाजिक गौरव एवं प्रतिष्ठा अर्जित करने का कोई अवसर शेष न रह जाए। शहरी व्यावसायिक भद्रता को ही देश में एक भद्रलोक होना है। अभी यह देखना बाकी है कि भारत जैसा कृषि प्रधान देश इसे कैसे सहन कर सकता है।
गांव की जनसंख्या में जमींदार, किसान और मजदूर होते हैं। इन तीनों में सर्वाधिक अनभिज्ञ और सहज विश्वासी मजदूरों की अधिकांश जनसंख्या के बीच आंदोलनकारी अपने उत्तेजक भाषणों से सबसे अधिक अशांति उकसाने में व्यस्त रहे हैं। वस्तुत: उनकी आतंकवादी बर्बर गतिविधियों से किसान और जमींदार समान रूप से उत्पीड़ित हुए हैं। जमींदार शब्द से हम प्राय: बड़े भूमिपति का अर्थ लेते हैं और उन छोटे काश्तकारों के विषय में कभी नहीं सोचते जो अपनी कुलीनता के प्रति जागरूक होते हुए भी अपनी न्यून आय में बड़ी कठिनाई से अपना जीवन निर्वाह कर पा रहे हैं। (पृष्ठ संख्या 125, असहयोग और अव्यापारिक श्रेणियां)
पिछडे वर्गों के हितों को ध्यान में रखते हुए वे लिखते हैं – स्पष्टत: देशी शासक वर्ग ने अपने जनतांत्रिक चरित्र को सिद्ध नहीं किया। समय आ गया है जब रियासत के प्रमुख अपने समस्त राष्ट्रीय आदर्शों के साथ सामने आएं और स्वयं को जनता की सुख सुविधा के लिए समर्पित कर दें जिससे लोक निन्दा के लिए कोई आधार न मिले। उन्हें अपने चारों ओर जनतांत्रिक कार्यप्रकारों (डेमोक्रेटिक बुल वक्र्स) का विकास करना चाहिए और सरकार के उस स्वरूप का पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं। अपने उदात्त आचरण के उदाहरण से उन्हें यह दिखा देना चाहिए कि शक्ति और अधिकार के साथ शील, समानता, करूणा, क्षमाशीलता, नि:स्वार्थता एवं अन्य उच्च गुण किस प्रकार चमक सकते हैं। देशी रियासतों की जनता को भी व्यक्तित्व के मशीनीकरण के प्रति अपने को सावधान रखना चाहिए। (पृष्ठ संख्या 126, असहयोग और अव्यापारिक श्रेणियां)
पाश्चात्य शिक्षा ने हमारे नवयुवकों के मस्तिष्क को वैयक्तिक स्वतंत्रता के विचारों से भर दिया जो अधिकांश स्थितियों में इतने अस्पष्ट एवं असंतुलित हैं कि वे सामाजिक एवं नैतिक अनुशासन के सम्पूर्ण बोध को निष्प्रभ कर देते हैं। उनके लिए अधिकार का अस्तित्व पारिवारिक, सामाजिक या राजनीतिक किसी भी क्षेत्र में और किसी भी रूप में घृणास्पद है। …सच्ची एवं सृजनात्मक राष्ट्रभक्ति के स्वस्थ विकास के साथ यह भावना सम्पूर्णत: असंगत है। (पृष्ठ संख्या 121, असहयोग और अव्यापारिक श्रेणियां) शिक्षा क्षेत्र के हमारे नवयुवकों को यह समझ रखना चाहिए कि देश में कोई भी संवैधानिक व्यवस्था लागू हो, किसी राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का सत्ता में समस्तरीय अधिकार नहीं हो सकता है। हमने यह सोचने की आदत डाल ली है कि जमीन से जुड़ी श्रेणियां शिक्षित लोगों के क्रिया-कलापों पर निरंतर अंकुश के रूप में कार्यरत हैं। लेकिन मैं बलपूर्वक कहता हूं कि नगर के कोठीवालों की तुलना में ये दूसरों का कहीं अधिक ध्यान रखते हैं तथा स्वार्थपूर्ण प्रभावों के प्रति कहीं कम नमनशील हैं। (पृष्ठ संख्या 124, 125 असहयोग और अव्यापारिक श्रेणियां)
उपरोक्त उद्धरणों को हिन्द स्वराज के बाद के अध्यायों के साथ मिलाकर देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि शुक्लजी की चिंता और गांधीजी की चिंता में काफी कुछ समान है। दोनों अंग्रेजी राज में भारत की दुर्दशा से मुक्ति के लिए जिंदगीभर अपने-अपने क्षेत्र में अपनी-अपनी दृष्टि से प्रयासरत रहे। लेकिन भारत जैसे बड़े एवं विविधताओं वाले देश में किसी एक व्यक्ति की दृष्टि या विचार प्रणाली से सारी समस्याओं के विश्लेषण और उनके समाधान के लिए चिंतन के क्रम में कुछ असहजता, असंगति एवं विसंगति का आ जाना या दिखना अस्वभाविक नहीं है। फलस्वरूप लोकमंगल के प्रति दो व्यक्तियों में भी मतभेद हो सकता है।
लोकमंगल की अवधारणा भारतीय परम्परा के प्रवृत्तिमार्गी स्वरूप का युगानुकूलन है। जो तिलक के लिए लोकसंग्रह है तथा गांधी के लिए सर्वोदय है वह शुक्लजी के लिए लोकमंगल है। तिलक महाराज ज्ञानमार्गी थे। गांधीजी भक्तिमार्गी थे और शुक्लजी कर्ममार्गी थे। तिलक महाराज ने शास्त्र गढ़ा, शास्त्रीय वैदिक परम्परा का युगानुकूलन किया। अपने अंतिम अर्थों में तिलक महाराज समर्थ रामदास की तरह राजसत्ता का भारतीय दृष्टि से नियमन करना चाहते थे। महात्मा गांधी का मूल उद्देश्य लोकसत्ता को राजसत्ता से स्वायत्त बनाना था। तिलक महाराज ने नारा दिया था ”स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।” उनका जोर राज्य पर था। तिलक महाराज की चिन्ता ब्रिटिश राज्य से मुक्त भारतीय राज्य था। उनकी चिंता राज्य की ब्रिटिश अवधारणा को चुनौती या व्यक्ति की तुलना में राज्य को नियमित करना नहीं था। जबकि हिन्द स्वराज में गांधीजी का उद्देश्य ‘स्वराज’ था। उसमें जोर ‘स्व’ पर था। इसमें गांधीजी उस सनातन भारतीय सभ्यता के सूत्रों का युगानूकुलन कर रहे थे जिसमें सभ्यता का केंद्र राजा या राज्य नहीं, बल्कि धर्म और अपनी आत्मा को पहचान चुका स्वायत्त व्यक्ति था। वे राज्य की सर्वोच्चता को सभ्यता के लिए परमावश्यक नहीं मानते थे। सभ्यता के कई केंद्रों में धर्म के वाहक के रूप में, राज्य भी एक केंद्र था। परंतु जीवन का मानदंड गांधी के लिए राज्य या राजनीति से निर्धारित नहीं होता था।
रामचन्द्र शुक्ल की चिन्ता अलग थी। यह उनकी व्यक्तिगत चिन्ता नहीं थी। हिन्दी भाषी समाज के प्रतिनिधि के रूप में उनकी सर्वप्रमुख चिन्ता हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोकजागरण को साहित्य के प्रतिमान द्वारा नियमन करने की चिन्ता थी। अंग्रेजी राज में व्यापार के जितने बड़े केंद्र थे, वे सभी के सभी हिन्दी भाषी क्षेत्र के बाहर थे। बम्बई, कलकत्ता, मद्रास, सूरत, इत्यादि। हिन्दी भाषी क्षेत्र में राजा-रजवाड़े-सामन्त अंग्रेजी राज के साथ सहयोग करना चाहते थे। आधुनिकता की पश्चिमी शैली की अपनी समस्याएं रही और अपना अंतर्विरोध रहा है। परम्परा की भी अपनी समस्याएं होती हैं और अपना अंतर्विरोध होता है। शुक्लजी की अंग्रेजी राज के विरुद्ध असहयोग के गांधीवादी आग्रह से जो असहमति है, वह तो गोखले, राणाडे, मेहता जैसे नरमपंथियों, सुधारवादियों से मिलती-जुलती है, जबकि गांधी का असहयोग तिलक और अरविन्द घोष के स्वदेशी-स्वराज्य के गरमपंथी राष्ट्रवाद के अनुकूल था। वर्गहित एवं राष्ट्रहित में राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने की परम्परा यहां याद करने की जरूरत है। यह अकारण नहीं है कि लोकमंगल का मानक शुक्लजी रामचरितमानस से लेते हैं। रामचरितमानस का मानक राजतंत्र से आता है। राजतंत्र का लक्ष्य लोकमंगल हो सकता है परंतु वह है राज्य एवं राजा केंद्रित ही। जब तुलसी ने मानस की रचना की थी तो अकबर का मुगलिया राजतंत्र था। इसके विकल्प में तुलसी त्रेता युग की राज्य व्यवस्था से प्रेरणा लेते हैं।
तिलक महाराज जब ‘गीता रहस्य’ रच रहे थे तो अंग्रेजी राज के विकल्प की प्रेरणा उन्हें शिवाजी महाराज और पेशवाओं की शासन व्यवस्था से मिलती है। कौरव एक तरफ औरंगजेब का प्रतीक है तो दूसरी तरफ अंग्रेजी राज का। श्रीकृष्ण का युगानुकूलन समर्थ रामदास में खोजा जा सकता है और अर्जुन का शिवाजी महाराज में। लेकिन अंग्रेजों से लड़ने की प्रेरणा तिलक ‘दासबोध’, ‘ज्ञानेश्वरी’ या गीता के शंकर भाष्य से नहीं ले पाते। गीता रहस्य और गणपति महोत्सव एक ही रणनीति के दो पहलू है। तिलक महाराज को परम्परा की सीमा पता है इसके बावजूद वे राणाडे एवं गोखले की तरह सुधारवादी नहीं हैं। कहीं न कहीं रामचन्द्र शुक्ल एवं सुधारवादियों में वैचारिक समता अवश्य है। युगपरिवर्तन को नहीं स्वीकारना और जोड़-तोड़ करके पुरानी संरचना को कायम रखना पुनरुत्थानवादी रूझान है जो सनातनी दृष्टि से अभारतीय है। हर उत्सव में हम भारतीय लोग पुनर्रचना करते हैं और उत्सव की समाप्ति पर विसर्जन कर देते हैं। केवल ब्रह्मा और विष्णु नहीं, शिव भी सनातन देवता हैं। केवल सगुण और निर्णुण पक्ष नहीं है भारतीय परम्परा में, आस्तिक और नास्तिक पक्ष भी हैं। लोकायत भी एक वैध भारतीय दर्शन है। नौ रसों में एक वैध रस वीभत्स भी है। स्मृतिकारों ने केवल ब्राह्म और प्रजापत्य विवाह को नहीं स्वीकारा, बल्कि गंधर्व, राक्षस एवं पैशाच विवाह को भी एक सीमा तक वैध माना है। भारतीय परम्परा केवल त्याग, अध्यात्म और योग की नहीं है।
यह भोग, प्रकृतिवादी भौतिकता और रोग एवं चिकित्सा की भी है। भारतीय परम्परा नियम एवं सिद्धांत पर आधारित संसार एवं जगत की चर्चा करती है, नैतिकवादी आग्रह और अनैतिक व्यवहार में सामंजस्य बिठाने की चर्चा नहीं करती। तंत्र एवं आगम की परम्परा भी उतनी ही भारतीय है जितना वेद और वेदान्त की। तुलसी के मानस में सबको स्वीकारने का साहस है परंतु शुक्लजी की मौलिकता की अपनी सीमाएं हैं। यह सीमा कभी कबीर के मूल्यांकन में सामने आती है, कभी गांधी के मूल्यांकन को असंतुलित करती है और कभी निराला की संवेदना के साथ न्याय करने में बाधा बनती है। भारतीय परम्परा सर्वग्राही एवं कास्मिक रियलिस्ट (एकात्मक यथार्थवादी) रही है। इसको समझाने में कुल मिलाकर शुक्लजी की उपलब्धियां युगान्तकारी हैं। हिन्दी भाषी समाज के पास रामचन्द्र शुक्ल द्वारा स्थापित मानक आज भी समाज एवं साहित्य के विश्लेषण के लिए सबसे विश्वसनीय समाजशास्त्रीय प्रमाण माने जाते हैं। भारत जैसे सभ्यतामूलक समाज के सभी पक्षों का प्रामाणिक ज्ञान यदि इतना सरल होता तो प्राचीन काल में ही परम्परा में नौ प्रकार के वैध दर्शन प्रणाली की क्या आवश्यकता थी? अत: शुक्लजी का कुछ स्थापनाओं या उनकी कुछ व्याख्याओं से असहमत होना स्वभाविक है परंतु समाज या साहित्य को समझने के लिए शुक्लजी ने जो साधना की है, उसे नजरअंदाज करके हम अपना ही अहित करेंगे। शुक्लजी के पास भारतीय संस्कृति, इसकी समस्याओं एवं समाधान की दृष्टि से कोई फार्मूला नहीं है। ऐसे भी भारतीय परम्परा के बारे में फार्मूला देने में सावधान रहने की आवश्यकता है। भारतीय परम्परा अत्यंत प्राचीन और वैविध्यपूर्ण है।
महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक और रामचन्द्र शुक्ल के बीच की चीज हैं, उससे भी बढ़कर वे तुलसी और कबीर के बीच की चीज हैं। गांधी वर्णाश्रम की नई व्याख्या प्रस्तुत करते हैं परंतु वर्णाश्रम का विरोध कभी नहीं करते। तिलक भी वर्णाश्रम की नई व्याख्या प्रस्तुत करते हैं परंतु ब्रेड लेबर के प्रति तिलक का गांधी जैसा जोर नहीं है। गांधी वर्णाश्रम के समर्थक हैं, क्षात्र धर्म के समर्थक नहीं हैं। वे शूद्र धर्म के समर्थक हैं।
यह ठीक है कि गांधीजी खुद बनिया थे। यह भी कि वैश्यों से उनकी निकटता थी (बिड़ला, बजाज आदि)। यह भी कि उनके असहयोग आन्दोलन से वैश्य वर्ग को अन्तत: लाभ ही हुआ परंतु शुक्ल जी का आरोप अतिरंजित है। जो आरोप शुक्ल जी गांधी पर लगाते हैं, वही आरोप खगोलीकरण के समर्थक स्वदेशी के समकालीन समर्थकों पर लगाते रहें है कि डब्लू.टी.ओ. से अलग होकर हमलोग भूखे मर जाएंगे। दरअसल गांधीजी यह मानते थे कि निवृत्ति मार्ग भी इहलोकवादी निष्काम कर्म का आधार बन सकता है जबकि शुक्ल जी प्रवृत्ति मार्गी क्षात्र धर्म के समर्थक थे। गांधीजी की मौलिकता इसमें थी कि वे निवृत्ति मार्ग की सामूहिक साधना को निष्काम कर्म के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे।
तिलक, शुक्ल और गांधी तीनों की व्यक्तिगत साधना या स्वभाव भले ही अलग था परंतु सामाजिक विकास के लिए तीनों गीता से प्रभावित कर्मवाद के समर्थक माने जा सकते हैं।
‘Indians Knew the Laws of Gravity 500 Years Before Newton'
By Sushant Kulkarni for Sakaal Times (India) on 15 Apr 2010
Sir Isaac Newton supposedly conceived of gravity by observing an apple fall from a tree.
Ancient Indian mathematician Bhaskaracharya, in his book Siddhanta Shriromani, defined laws of gravity in the 12th century, 500 years before Newton defined them for us. The speed of light has been known to Indians since the Vedic period, centuries before it was calculated by the Western world.
Maitree, a group of professionals from Tata Consultancy Services and Bengaluru-based NGO Samskrita Bharati, have come together with a unique exhibition, Pride of India, to spread awareness about India's rich scientific heritage.
The exhibition in Pune on Friday April 16th showcased 150 posters, each explaining one Sanskrit shloka from ancient Indian scientific literature.
“The shlokas (verses) by ancient scientists and mathematicians like Bhaskaracharya, Baudhayana, Apastambha and Bhaskaracharya's daughter Leelavati have been showcased in the exhibition.” said Aashish Manjaramkar, exhibition coordinator. “Our aim is to tell that zero is not the only contribution that Indians have made to science and math.” he added.
Manjramkar commented, “Very few of us know that the speed of light was known to Indians in the Vedic period. A shloka says that the speed of light is 2202 yojana per half nimesha. A yojana is a unit of distance which is equal to 9.06 miles and half a nimesha is one tenth of a second. The figure is very close to the modern measurement of speed of light.”
“One of the shlokas in the exhibition describes a conversation between Bhaskaracharya and his daughter Leelavati, who also was a mathematician. The conversation beautifully explains the spherical shape of the earth and the gravitational force that keeps planets revolving in space,” said Manjaramkar.
Samskrita Bharati, which works in all major cities of India and also in 16 US cities, was established in 1983 and works for the promotion of Sanskrit as a spoken language. The organization regularly stages such events across India.
think…
Nathuram Godse’s speech in court
killing tool used by Godse. The gun used by Godse was a Beretta M1934 semi-automatic pistol in .380 ACP caliber, serial number 606824. |
First Information Report of M. K. Gandhi Assassination. |
परिचय