भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंड़ित जवाहरलाल नेहरू और उनके जीवन से जुडे कई प्रसंगों को तो हम जानते हैं लेकिन उनके और एडविना माउंटबैटेन के बीच रिश्ते् के बारे में आज भी बहुत कम लोग जानते हैं। दोनों के बीच एक ऐसा गहरा रिश्ता था जिसे शब्दों से नहीं, सिर्फ भावनाओं से ही समझा जा सकता है। जहां पं. नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे, वहीं एडविना ब्रिटिश उपनिवेश के आखिरी वायसराय व स्वाधीन भारत के पहले गवर्नर-जनरल लॉर्ड माउंटबैटेन की पत्नी थीं। पं. नेहरू और एडविना की मित्रता या प्रेम को दुनियाभार के लोगों ने भले ही अपने-अपने नजरिए से देखा और परिभाषित किया हो, मगर इन दोनों के अपने ही सबसे करीबी रिश्तेदारों ने इनकी इस मित्रता को आत्मिक व परिपक्व प्रेम का नाम दिया है। एडविना के पति माउंटबैटेन, जिन्हें भली-भांति पता था कि उनकी पत्नी नेहरू जी से प्रेम करती है, इस बात पर फक्र महसूस करते थे कि एडविना ने विश्व के एक महान व्यक्ति को अपना प्रेमी चुना है।
माउंटबैटेन की पुत्री पामेला माउंटबैटेन एक जगह लिखती हैं, ''मेरी मां के पहले भी कई प्रेमी थे, इस बात ने मेरे पिता के हृदय को आघात पहुंचाया था, लेकिन नेहरू के मामले में यह बात किसी तरह से अलग थी। नेहरू के प्रति उनका खास लगाव था।" पामेला जून, 1948 में अपनी बड़ी बहन को लिखे माउंटबैटेन के पत्र का हवाला भी देती हैं। जिसमें वे लिखते हैं, ''वह (एडविना) और नेहरू एक-दूसरे के साथ बहुत प्रसन्न रहते हैं तथा वास्तव में सबसे अच्छे तरीके से एक-दूसरे को प्यार करते हैं।"
दूसरी ओर, नेहरू जी की बहन विजयलक्ष्मी पंड़ित ने माना था कि ''वह समय बहुत कठिन था। मेरे भाई एक महत्वपूर्ण काम कर रहे थे तथा ऐसे समय में उनकी पत्नी की मृत्यु हो जाने से वे पूर्णत: अकेले हो गए थे। उनके हृदय में एडविना माउंटबैटेन की बुद्धिमतापूर्ण संगति और उनके स्नेहिल व्यक्तित्व के प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया। वे दोनों सदैव एक-दूसरे से बहुत विवेकपूर्ण चर्चाएं करते थे।" इसी प्रकार नेहरू जी की सुपुत्री इंदिरा गांधी ने लिखा है, ''मेरे पिता जिस प्रकार का जीवन व्यतीत करते थे, उस स्थिति में एक भिन्न प्रकार के व्यक्ति के साथ स्नेह-संबंध उनके तनावों को ढीला करने के लिए बहुत आवश्यक था। वे दोनों गंभीर, बौद्धिक चर्चाएं करते थे और मेरे पिता एडविना को बहुत प्याथर करते थे।"
नेहरू, एडविना और माउंटबैटेन एक-दूसरे को पत्र लिखा करते थे। एडविना के पति लॉर्ड माउंटबैटेन नेहरू के इन पत्रों को 'प्रेम पत्र" की संज्ञा देते थे। इस बारे में उन्होंने स्वयं कहा था कि नेहरू जी मुझे तो टाइप किए हुए पत्र लिखते थे, लेकिन एडविना को वे हस्तलिखित पत्र लिखा करते थे। एडविना की मृत्यु के उपरांत भी उनके पति ने इन पत्रों को संभाल कर रखा था। माना जाता है कि इन तमाम पत्रों का वजन करीब 30 किलोग्राम था। इन पत्रों में फूलों की पंखुडियों भी होती थीं। जो पत्र एडविना ने पं. नेहरू को लिखे थे उनके बारे में कोई खास जानकारी नहीं मिलती क्योंकि उनके बारे में नेहरू परिवार ने सार्वजनिक रूप में खुलासा नहीं किया।
एडविना सन् 1855 से 1865 की अवधि तक ब्रिटेन के प्रसिद्ध प्रधानमंत्री रहे लॉर्ड पामर्स्टन की वंशज थीं। एडविना की बालावस्था में ही उनकी मां की मृत्यु हो जाने के कारण वे मानसिक रूप से अंतर्मुखी तथा बहुत संवेदनशील हो गई थीं। शायद यही कारण था कि उनके हृदय में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति तभी से सहानुभूति व लगाव था जब सन् 1922 में उन्हें पहली बार भारत आने का अवसर मिला। यही वजह थी कि जब वे इंग्लैंड वापिस लौटीं और लॉर्ड माउंटबैटेन के साथ उनका विवाह हो गया, तब भी एडविना का लगाव भारत से बना रहा तथा वहां रहकर भी वे भारत, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और उसके नेताओं के बारे में सोचती, पढ़ती एवं उत्सुकता से जानने की कोशिश करती रहती थीं। सन् 1936 में जब पं. नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का देहांत हुआ उसी वर्ष लंदन के 'बोडले हेड" ने पं. नेहरू की आत्मकथा का प्रकाशन किया। जिसके संपादक थे वी। के। कृष्णमेनन। कृष्णमेनन एडविना और नेहरू दोनों के ही मित्र थे। एडविना की रूचि देखते हुए इन्होंने ही उन्हें यह पुस्तक पढ़ने को दी थी। नेहरू जी की आत्मकथा का अध्ययन करने के बाद एडविना की उनसे मिलने की इच्छा और बलवती हो गई थी।
विवाह के बाद एडविना को सन् 1945 में अपने पति माउंटबैटेन के साथ पुन: भारत आने का मौका मिला। इस मौके का फायदा उठाते हुए उन्होंने अहमदनगर किले में कैद पं. नेहरू से मिलने का प्रयास किया, परन्तु अंग्रेजी हुकूमत से उन्हें इस बात की अनुमति नहीं मिल सकी। उनकी यह इच्छा आगामी वर्ष में ही पूरी हो पायी जब मार्च, 1946 में माउंटबैटेन दंपति तथा पं. नेहरू सिंगापुर में थे। इसी दौरान एडविना और पं. नेहरू की प्रथम मुलाकात हुई थी। इस मुलाकात ने जल्दी ही इन दोनों के बीच एक गहरी दोस्ती और प्रेम की नींव रख दी थी।
इस संदर्भ में "माउंटबैटेन : हीरो ऑफ अवर टाइम" के प्रसिद्ध लेखक रिचर्ड हो एक जगह लिखते हैं कि जिस खूबसूरत आदमी को एडविना ने पहली दफा देखा था वह शीघ्र ही उनकी जिंदगी का खास आदमी बन गया और अगले 14 सालों तक ऐसा ही बना रहा। पं. नेहरू सरलता से एडविना के लिए सबसे ज्यादा प्रिय एवं अकेले प्रेमी बन गए थे। उनका यह प्यार काफी गहरा और कई धरातलों पर प्रवाहित होता था। तत्कालीन राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समाज में भी इन दोनों का विशेष स्थान था। अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद पं. नेहरू नितांत अकेले से पड़ गए थे। इसके अतिरिक्त सन् 1942 में अपनी पुत्री इंदिरा के विवाह के उपरांत तो उनका यह अकेलापन उन्हें और भी अधिक कचोटता होगा। अत: यह स्वाभाविक ही है कि ऐसी परिस्थितियों में उनके जीवन में एडविना जैसी महिला मित्र का आगमन उनके लिए काफी सुकून और प्रसन्नता प्रदान करने वाला रहा होगा। दूसरी ओर एडविना भी भावनात्मक रूप से पं. नेहरू के प्रति पहले से ही गहरा लगाव अनुभव किया करती थीं। इस प्रकार दोनों के बीच प्रगाढ़ मित्रता का हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।
अपने समय के संगी-साथियों, आजादी की जंग में देश के बड़े-बड़े नेताओं की कुर्बानी, देश के बंटवारे की आग व देश की आजादी का अविस्मरणीय स्वर्णीम अवसर, स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री के रूप में देश को दशा व दिशा प्रदान करना आदि जैसी बड़ी व महत्वपूर्ण घटनाओं के समय पं. नेहरू को जिस सहारे और साथी की आवश्यकता थी, उसकी कमी कदाचित एडविना ने ही पूरी की थी। एडविना और नेहरू के बीच जो प्या र था उसमें बहुत गंभीरता व परिपक्वता थी कदाचित् यही कारण था कि माउंटबैटेन सब कुछ जानते और समझते हुए भी उनके बीच दीवार नहीं बने।
एडविना और पं. नेहरू ने अपना काफी समय भारत के राष्ट्रपति भवन, शिमला स्थित वायसराय भवन तथा इंग्लैंड के ब्रॉडलैंड आदि के वन-उपवनों आदि जैसे स्थानों पर एक-साथ व्यतीत किया था। पं. नेहरू जब भी इंग्लैंड जाते, तो व्यस्तता के बावजूद अपना कुछ समय एडविना के लिए अवश्य निकाल लेते थे। सन् 1949 में जब जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रमंडल सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए इंग्लैंड पहुंचे, तो वहां भी जब कभी मौका मिलता, दोनों साथ-साथ समय बिताकर बिछड़ने की कमी पूरी किया करते थे। वर्ष 1959 में नेहरू जी का जन्मदिन भी एक ऐसा ही अवसर था, क्योंकि इस वर्ष 14 नवंबर को नेहरू जी के 70 वें जन्मदिन की खुशी में एडविना ने रात्रि-भोज का आयोजन किया था।
स्वतंत्रता के बाद लॉर्ड माउंटबैटेन गवर्नर-जनरल के अपने पद से मुक्त होकर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को कार्य भार सौंपकर वापिस जाने लगे, तो उस समय उनके सम्मान में दिए जाने वाले विदाई भोज के समय पं. नेहरू को बोलने के लिए कहा गया। उस दौरान दिए गए भाषण में अन्य बातों के अलावा जब एडविना का जिक्र आया, तो नेहरू जी एक क्षण रुक कर एडविना की तरफ मुखातिब होकर बोले, 'देवताओं अथवा किसी महान देवी ने आपको सुंदरता, बुद्धि, शालीनता, आकर्षण तथा जीवन-शक्ति का महान उपहार प्रदान दिया है ......... तथा इन गुणों की स्वामिनी आप एक महान नारी हो, भले ही आप कहीं भी चली जाओ। यह प्रकृति का नियम है कि जिनके पास पहले से ही बहुत कुछ हो, उन्हें और भी मिल जाता है तथा उन्होंने आपको एक ऐसी चीज भी प्रदान की है जो इन गुणों से भी ज्यादा विरल एवं श्रेयस्कर है - मानवीय स्पर्श, मानवजाति के प्रति प्रेम, उनकी सेवा की भावना जो पीड़ित हैं, मुश्किलों में हैं। और ........... गुणों का यह विस्यमकारी मेल आपको एक जाज्वल्यमान व्यक्तित्व तथा घाव भरने वाला मृदु स्पर्श प्रदान करता है। जहां भी आप जाती हो, वहीं लोगों को हौसला प्राप्तर हो जाता है, आशा एवं प्रोत्साहन मिलता है। अगर भारत की जनता आपको दिल से चाहने लगे तथा आपको अपने में से ही एक समझने लगे और आपके यहां से जाने पर दु:खी हो जाए, तो क्या इसे आश्चर्यजनक माना जाएगा।"
एडविना के हृदय में भी नेहरू जी ने अपना एक विशेष स्थान बना लिया था। इसलिए उनके बिना रहना एडविना के लिए भी दुष्कर हो रहा था। अत: एडविना ने अपने सामाजिक कार्यों, रेड क्रॉस, बाल-रक्षा कोष और दक्षिण-पूर्व एशिया में सेंट जॉन एंबुलैंस के लिए स्वयं को सक्रिय बनाए रखा ताकि उन्हें जब-तब भारत आगमन का अवसर मिलता रहे और नेहरू जी से भी मुलाकात होती रहे। दरअसल, एडविना और नेहरू दोनों ही ऐसे मौकों की फिराक में रहते थे जिससे दोनों एक साथ समय व्यतीत कर सकें। सन् 1951 में जब एडविना भारत में थीं तो नेहरू जी ने कश्मीर यात्रा का अपना जो कार्यक्रम बनाया था उसमें एडविना भी उनके साथ थीं।
इसी प्रकार सन् 1960 में गणतंत्र दिवस के मौके पर भी पं. नेहरू ने एडविना को पत्र लिखकर उन्हें दिल्ली आने का निमंत्रण दिया। जिसे उन्होंने हमेशा की तरह सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस बार गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि थे तत्कालीन सोवियत राष्ट्रपति मार्शल क्लेमेंट वोरोशिलोव। एडविना भी विशिष्ट व्यक्तियों वाले स्थान पर थीं। इस मौके पर एडविना नेहरू जी का हाथ पकड़कर वहां उपस्थित व्यक्तियों से मिली थीं। इसी प्रकार 29 जनवरी, 1960 का 'बीटिंग द रिट्रीट" समारोह भी एडविना और नेहरू जी ने साथ मिलकर ही मनाया था, परन्तु दुर्भाग्यवश यह इन दोनों की अंतिम मुलाकात थी। जिसके बारे में विधाता के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था। अपनी इस अंतिम भारत यात्रा से लौटने के कुछ दिनों बाद ही वे अस्वस्थ हो गईं इसलिए उन्हें 20 फरवरी को उत्तरी बोर्नियो के जैसलटन नगर के एक अस्पताल में भर्ती होना पड़ा, लेकिन अगले दिन जब वे काफी देर तक सोकर नहीं उठीं, तो उनकी खैर-खबर लेने के लिए देखा गया, लेकिन सबको यह जानकर काफी दु:ख हुआ कि एडविना का देहावसान हो गया था।
भारत में नेहरू जी को जिस समय एडविना की मृत्यु के बारे में पता चला, उस समय वे ब्रिटेन के विश्वविख्यात इतिहासकार एवं शिक्षाविद् अर्नाल्ड टॉयनबी के भाषण 'इतिहास के सांचे में भारत" के लिए 'इंडियन कॉउंसिल फॉर इंटरनेशनल अफेयर्स" में जाने की तैयारी कर रहे थे। यह दु:खद खबर सुनते ही नेहरू जी को गहरा धक्का लगा और वे बेसुध-निढाल से हो गए। उनकी जीवनी लिखने वाली मैरी सेटन भी वहां मौजूद थीं। इस बारे में वे लिखती हैं, ''नेहरू जी का चेहरा भाव-शून्य हो गया था तथा ऐसा लग रहा था कि वे भीतर की गहराई में कहीं डूब गए हैं। उन्हें इस बात का कोई एहसास नहीं था कि उनके निकट कौन-कौन व्यक्ति हैं तथा वे क्या कर रहे हैं।"" परन्तु नेहरू जी ने शीघ्र ही जैसे-तैसे स्वयं को संभाला और कुछ सोचकर अर्नाल्ड टॉयनबी के भाषण में जाने का निर्णय लिया। बाद में भारतीय संसद ने एडविना को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की और मौन भी रखा। सांयकाल में पं. नेहरू और उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने चर्च में जाकर भी एडविना की आत्मा को शांति देने के लिए प्रभु से प्रार्थना की।
एडविना की यह इच्छा थी कि उनके अंतिम संस्कार के लिए उनका शव दफनाया न जाए, बल्कि सागर में प्रवाहित कर दिया जाए। तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने एडविना की यह इच्छा पूरी करने का फैसला किया। जब यह बात पं. नेहरू को पता चली, तो उन्होंने भारतीय नौ-सेना के एक युद्धपोत 'त्रिशूल" को फौरन ब्रिटेन के लिए रवाना कर दिया। जिस समय एडविना को जल समाधि दी गई और ब्रिटेन की ओर से फूल मालाएं अर्पित की गईं, उस नेहरू जी की ओर से भी भारतीय नौ-सेना के त्रिशूल से पुष्पार्पण किया गया था।
अपनी इस विशेष मित्र को खोकर नेहरू जी को गहरा आघात गा था। एडविना की मृत्यु के बाद उनकी और एडविना की लगभग 15 साल पुरानी मित्रता व प्रेम भौतिक रूप से समाप्त हो गया था। इसके बाद नेहरू जी भी बहुत अधिक समय तक जीवित नहीं रह पाए तथा 27 मई, 1964 में उनकी भी मृत्यु हो गई।
आपको अच्छा स्थान दिला सकता है... ये लेख...
ReplyDelete