--कुलदीप अविनाश भंडारी
न कत्ल करते हैं, न जीने की दुआ देते हैं,
लोग किस जुर्म की आखिर ये सज़ा देते है ।
****
यूं तो मंसूर बने फिरते हैं कुछ लोग,
होश उड जाते हैं जब सिर का सवाल आता है ।
****
मुझे तो होश नही, तुमको खबर हो शायद ,
लोग कहते है कि तुम ने मुझ को बर्बाद कर दिया ।
****
आखिर काम कर गए लोग ,
सच कहा और मर गए हम लोग ।
****
बस्ती मे सारे लोग लहू मे नहा गए,
लह्ज़ा नए खीताब का कितना अजीब था ।
****
देखिए गौर से रुक कर किसी चौराहे पर,
जिंदगी लोग लिए फिरते हैं लाशों के तरह ।
****
इस नगर मे लोग फिरते है मुखौटे पहन कर,
असल चेहरों को यहां पह्चानना मुमकिन नही ।
****
कुछ लोग ज़माने ऐसे भी तो होते हैं ,
महफिल में जो हंसते हैं, तन्हाई मे रोते हैं ।
No comments:
Post a Comment